Bengaluru, मेरे सपनो का शहर,
जिसकी हवाओं में, मैं साँस लेती हूँ
जिसकी सड़कों पर, मैं मीलों चलती हूँ
पहली बार जब मेरे कदम यहाँ पड़ें
जाने क्यों मेरे दिल ने कहाँ
ये शहर तेरा अपना है मधु
वो सांझ का समय
रुकती थिरकती महकती बूंदें
धुली धुली पेड़ों की पत्तियां
और खिले खिले रंग बिरंगे फूल
मेरे होटों पर हंसी छलक गई
Delhi की तपतपाती धूप से
सुहावने मौसम में आ गई
एक तमन्ना थी मेरी
यहाँ अपना आशियाना बनाने की
पर ६ साल में,
ये शहर और मैं दोनों ही बदल गए
इस शहर ने अपनी खूबसूरती खो दी
और मैंने आशियाना बनाने की तमन्ना
ऊँचे ऊँचे पुराने बरगद के पेड़ कट गए
सड़के चौड़ी हो गई और छायें खो गई
यूहीं मैं बारिश के बाद निकल जाती थी सड़कों पर
पेड़ों से टपकती बूंदें मेरे गालों को भिगों देती
और मेरी हथेलियों में सिमट जाती
अब...बारिश होती है तो
बालकनी मैं बैटकर
तुलसी की पत्तियों को निहारती रहती हूँ
इमारते ऊँची और ऊँची होती जा रही है
चिड़ियाँ तो पहले ही नहीं थी
अब कबूतर भी कम होते जा रहे हैं
आकाश नगा सा खड़ा रहता है दिनभर
कभी कभार बस एक चील उडती दिखाई देती है
कुछ सालों पहले,
एक कोयल का घोसला था कहीं आस पास
ढलती हुई शाम
हाथ में गर्म चाय का प्याला
और मुझसे कुछ कहती वो मासूम कोयल
जैसे कुछ कुरेदती थी मेरे अन्दर
बेसुरी सी शाम में संगीत घोलती थी वो
अब जाने कहाँ खो गई है
बाकी शहरों की तरह इस शहर में ,
जहाँ देखों बस रोशनी ही रोशनी है
इतनी रोशनी की तारे कहीं खो गए हैं
चाँद अकेला आसमान में अंगडाई लेता है
कभी रूठा सा मुझसे
कभी शिकायत करता मुझसे
इतने सारे घर बदले मैंने इस शहर में
पर मैं चाँद को और चाँद मुझे ढूँढ ही लेते हैं
सुनसान सी रातों में वो मेरे पास आकार बैठ जाता है
मैं कभी खिलखिलाती नाचती हुई उसकी चांदनी में
कभी सिसक सिसक रोती हूँ रातभर उसकी गोद में
Bengaluru, मेरे सपनो का शहर,
जिसकी हवाओं में मैं साँस लेती हूँ
जिसकी सड़कों पर मैं मीलों चलती हूँ
ये शहर साक्षी है,
मेरी ढलती हुई उम्र का, टूटते पुराने रिश्तों का
और जन्म लेती नई आशाओं का
कितने अलग अलग लोग मिले यहाँ मुझे
किसी के साथ एक कदम चली
और कभी बस एक मुस्कराहट भर का साथ रहा
कभी किसी का हाथ पकड़, कभी अकेले
मैं तलाशती रही अपनी ज़िन्दगी के मायने
ना इसे पता है कि इसकी मंजिल क्या है
ना मुझे पता है मुझे जाना कहाँ है
मैं इससे कुछ कहती हूँ ये मुझसे कुछ कहता है
बस चल रहे हैं बस चल रहे हैं दोनों
Tuesday, December 14, 2010
Friday, December 10, 2010
छलाँग
शायद ,
मैंने कभी किसी से प्यार किया ही नहीं
जिसे समझा था प्यार
वो तो प्यार था ही नहीं
फिर मैं रातों में क्यों जागती रही
झूठे सच्चे सपने सजाती रही
मन मेरा मुझ पर हँसता है
नादान,
तू अब भी ना समझ पाई
मुट्टी में सोना समझकर थी तूने रेत पकड़ी
खुली मुट्टी बिखर गया रेत
रह गई खाली हथेली
पहरेदारी कर रही थी तू उस घर की
जिसमे कोई रहता ना था
कागजों के महल बना रही थी
आग लगी और बस राख रह गई
जब कुछ था ही नहीं एक वहम के सिवा
तो इतना हल्ला गुल्ला क्यों मचा रही है
तू अपने आप से भाग रही थी
अपनी ही परछाई से डर रही थी
कभी गले लगा तू अपनी परछाई को
पूछ उसका हाल चाल भी
मैं हाथ पकड़कर अपनी परछाई का
जैसे ही दो -चार कदम चली
सारी दुनिया ही उल्ट-पुलट हो गई
बाहर से ज्यदा,
मेरी नज़र अपने अन्दर जाने लगी
हर रोज,
मैं अपने कमरे की सफाई करती हूँ
नीले रंग के परदे लगा रखे हैं
लाल रंग की कारपेट बिछा रखी है
लेकिन अन्दर,
अन्दर के कमरे की तो मैंने कभी सफाई की ही नहीं
ना उसे रंगों से सजाया कभी
अन्दर के कमरे में झाँका तो जाना
वहां तो मकड़ी के बड़े बड़े भयंकर जाले लगे थे
जाने कितने जन्मों से उन्होंने मेरे कमरे पर कव्जा जमा रखा था
वो जाले मेरे अन्दर थे मेरा हिस्सा थे
ना उन्हें अनदेखा कर पाती
ना उन्हें देख ही पाती
शायद ,
खुदा मुझ पर कुछ ज्यादा ही मेहरवान रहता है
जब भी डूबने वाली होती हूँ
ठीक डूबने से पहले बचा लेता है
आकर उसने सपने में एक मंतर दे दिया
जब भी मिले फुरसत आँख बंद कर लेना
मगर याद रहे ,
आँख बंद करनी है सो मत जाना
जाले अपने आप झड़ जायगे
थोड़ी सी तकलीफ होगी तुझे
दुनिया थोड़ा सा पागल समझेगी तुझे
मंतर काम कर गया
जाले झडे तो कमरे में रोशनी आने लगी
दुनिया से ज्यादा अपनी फिक्र सताने लगी
आधी ज़िन्दगी कट गई है दुनियादारी निभाते निभाते
दुनियादारी खुबसूरत है , आकर्षक है
पर बहुत हलकी और कच्ची है
एक हवा के झोके के उड़ जायगी सारी दुनियादारी
अब ज़िन्दगी की सौदेबाजी ही करनी है दोस्तों
तो थोड़ी परिपक्व और भारी वस्तु से कर लेती हूँ
थोड़ा सा साहस बटोर लेती हूँ
घबराहट को सुबहे की चाय के साथ पी लेती हूँ
अपने डरे से दिल को गले लगाकर मना लेती हूँ
जिस भीड़ से तू अलग होने से डरता है
वो कुछ अजनबी लोगों का जमघट है
इससे ज्यदा कुछ नहीं
क्यों तू छोटी छोटी बातों में इतना उलझा है
लोग क्या कहेंगे
इस दुनिया के इतिहास में ,
तेरा कोई नामों निशा ना होगा
तेरा अपना कोई आशियाना ना होगा
इन सब का कोई मोल नहीं है
अब तो बंदरों ने भी छोड़ दिया है नक़ल करना
तू कब छोड़ेगा दूसरों की तरह बनना
किसी भी दिन आकर, यमराज
तेरे घर की घंटी बजा देगा
तू मखमली चादर में लिपटी सोई हो
या फिर सूती कपड़ा लपेटा हो
वो तुरंत इस दुनिया से तेरी बिदाई करा देगा
कब तक घबराहट से भरी , डरी सहमी ज़िन्दगी जियेगी
खुला आसमान तेरा इंतज़ार कर रहा है
अब अपने घोंसले से निकलकर पंख फैला भी दे
अगर भरोसा नहीं है खुद पर ,
तो खुदा पर भरोसा करके,
एक बार इस घोंसले से छलाँग लगा भी दे
मैंने कभी किसी से प्यार किया ही नहीं
जिसे समझा था प्यार
वो तो प्यार था ही नहीं
फिर मैं रातों में क्यों जागती रही
झूठे सच्चे सपने सजाती रही
मन मेरा मुझ पर हँसता है
नादान,
तू अब भी ना समझ पाई
मुट्टी में सोना समझकर थी तूने रेत पकड़ी
खुली मुट्टी बिखर गया रेत
रह गई खाली हथेली
पहरेदारी कर रही थी तू उस घर की
जिसमे कोई रहता ना था
कागजों के महल बना रही थी
आग लगी और बस राख रह गई
जब कुछ था ही नहीं एक वहम के सिवा
तो इतना हल्ला गुल्ला क्यों मचा रही है
तू अपने आप से भाग रही थी
अपनी ही परछाई से डर रही थी
कभी गले लगा तू अपनी परछाई को
पूछ उसका हाल चाल भी
मैं हाथ पकड़कर अपनी परछाई का
जैसे ही दो -चार कदम चली
सारी दुनिया ही उल्ट-पुलट हो गई
बाहर से ज्यदा,
मेरी नज़र अपने अन्दर जाने लगी
हर रोज,
मैं अपने कमरे की सफाई करती हूँ
नीले रंग के परदे लगा रखे हैं
लाल रंग की कारपेट बिछा रखी है
लेकिन अन्दर,
अन्दर के कमरे की तो मैंने कभी सफाई की ही नहीं
ना उसे रंगों से सजाया कभी
अन्दर के कमरे में झाँका तो जाना
वहां तो मकड़ी के बड़े बड़े भयंकर जाले लगे थे
जाने कितने जन्मों से उन्होंने मेरे कमरे पर कव्जा जमा रखा था
वो जाले मेरे अन्दर थे मेरा हिस्सा थे
ना उन्हें अनदेखा कर पाती
ना उन्हें देख ही पाती
शायद ,
खुदा मुझ पर कुछ ज्यादा ही मेहरवान रहता है
जब भी डूबने वाली होती हूँ
ठीक डूबने से पहले बचा लेता है
आकर उसने सपने में एक मंतर दे दिया
जब भी मिले फुरसत आँख बंद कर लेना
मगर याद रहे ,
आँख बंद करनी है सो मत जाना
जाले अपने आप झड़ जायगे
थोड़ी सी तकलीफ होगी तुझे
दुनिया थोड़ा सा पागल समझेगी तुझे
मंतर काम कर गया
जाले झडे तो कमरे में रोशनी आने लगी
दुनिया से ज्यादा अपनी फिक्र सताने लगी
आधी ज़िन्दगी कट गई है दुनियादारी निभाते निभाते
दुनियादारी खुबसूरत है , आकर्षक है
पर बहुत हलकी और कच्ची है
एक हवा के झोके के उड़ जायगी सारी दुनियादारी
अब ज़िन्दगी की सौदेबाजी ही करनी है दोस्तों
तो थोड़ी परिपक्व और भारी वस्तु से कर लेती हूँ
थोड़ा सा साहस बटोर लेती हूँ
घबराहट को सुबहे की चाय के साथ पी लेती हूँ
अपने डरे से दिल को गले लगाकर मना लेती हूँ
जिस भीड़ से तू अलग होने से डरता है
वो कुछ अजनबी लोगों का जमघट है
इससे ज्यदा कुछ नहीं
क्यों तू छोटी छोटी बातों में इतना उलझा है
लोग क्या कहेंगे
इस दुनिया के इतिहास में ,
तेरा कोई नामों निशा ना होगा
तेरा अपना कोई आशियाना ना होगा
इन सब का कोई मोल नहीं है
अब तो बंदरों ने भी छोड़ दिया है नक़ल करना
तू कब छोड़ेगा दूसरों की तरह बनना
किसी भी दिन आकर, यमराज
तेरे घर की घंटी बजा देगा
तू मखमली चादर में लिपटी सोई हो
या फिर सूती कपड़ा लपेटा हो
वो तुरंत इस दुनिया से तेरी बिदाई करा देगा
कब तक घबराहट से भरी , डरी सहमी ज़िन्दगी जियेगी
खुला आसमान तेरा इंतज़ार कर रहा है
अब अपने घोंसले से निकलकर पंख फैला भी दे
अगर भरोसा नहीं है खुद पर ,
तो खुदा पर भरोसा करके,
एक बार इस घोंसले से छलाँग लगा भी दे
Thursday, December 9, 2010
मेरे साथी
मेरे साथी ,
मैं तुझसे शिकायत नहीं कर रही हूँ
यूहीं कभी-कबार आँख भर आती है
तेरी आवाज सुनने के लिए कान तरस गए हैं
देखने के लिए आँखें बिछी हुई है
तुझसे मिलने के लिए हर सांस तड़पती है
जब होती हूँ अकेली अपने कमरे में
तेरी ही तस्वीर दिखाई देती है
कैसे थे वो दिन जो तेरे साथ बिताए
उन्हें फिर से जीने की तमन्ना जागती है
पर मेरे साथी ,
मैं तुझसे शिकायत नहीं कर रही हूँ
यूहीं कभी-कबार आँख भर आती है
उस रास्ते पर जहाँ ,
मैं बच्चों की तरहे तुझसे जिद्द करती थी
कदम आगे ही नहीं बढ़ पाते
लगता है जैसे तू वहीँ कहीं होगा ,
और मुझे थाम लेगा
मैं जानती हूँ,
ये अधूरापन मेरा भी है और तेरा भी
तू मेरा जैसा बन गया और मैं तेरे जैसी
एक होकर भी दो टुकड़े हो गए
जो कभी ना जुड सके इतने अलग हो गए
इतने पास होकर भी ,
बताओ ना
हम कैसे इतने दूर हो गए?
जो भी हो साथी मेरे ,
तू भूलकर भी ये मत सोचना
मैं ताने मार रही हूँ
पर यूहीं कभी-कबार आँख भर आती है
कितनी अधूरी कहानी लेकर जिंदा रहता है इंसान
हमारी भी कहानी अधूरी ही रह गई
वादों की अनोखी दास्तान होती है ,
जब करते हैं बस उसी पल में वे सच होते हैं
समय के संग ,
मैं भी बहती चली गई
और तू भी
ना वादे वहीँ रहते हैं ना मैं और तू
बाहर तो फूल थे खुशबू थी,
अन्दर कांटे कहाँ से निकल आये
शायद कांटे वहां हमेशा से थे,
मैंने तूने पहले कभी टटोले नहीं थे
जैसे ही कांटे चुभे हम अलग हो गए
अपने अपने रास्तों के राही हो गए
मेरे साथी,
तू ये तो नहीं सोच रहा
मैं तुझे दोष दे रही हूँ
नहीं रे
यूहीं कभी-कबार आँख भर आती है
तूने मैंने मिलकर ही सब तोड़ा
जैसे हों कांच के बर्तन
फिर क्यों आंसू आये
फिर क्यों दिल पुकारे
ना तू समझा मुझे
ना मैं देख पाई तुझे आँख भरकर
एक झोका आया
और सब बिखर गया
एक कतरा भी ना बाकी रहा
मेरे साथी ,
कुछ तो जवाब दे ,
जब तुझसे मिली थी तो लागा था ,
जैसे बरसों के इंतज़ार के बाद ,
बंजर में बूंदे पड़ी हों
फिर कैसे तू बदल गया ?
कैसे मैं बदल गई ?
जाने कब कैसे छोटी छोटी वजह,
तुझसे मुझसे बड़ी हो गई
ऐसे जुदा हो गए
जैसे कोई रिश्ता नाता न हो
लेकिन एक बात बताओ साथी
दूर तो हम गए ,
पर तू थोडा सा मुझमें आ गया
मैं थोड़ी सी तुझमें चली गई
अब साथ रहें या ना रहें
एक दुसरे के साथी रहेंगे !
मैं तुझसे शिकायत नहीं कर रही हूँ
यूहीं कभी-कबार आँख भर आती है
तेरी आवाज सुनने के लिए कान तरस गए हैं
देखने के लिए आँखें बिछी हुई है
तुझसे मिलने के लिए हर सांस तड़पती है
जब होती हूँ अकेली अपने कमरे में
तेरी ही तस्वीर दिखाई देती है
कैसे थे वो दिन जो तेरे साथ बिताए
उन्हें फिर से जीने की तमन्ना जागती है
पर मेरे साथी ,
मैं तुझसे शिकायत नहीं कर रही हूँ
यूहीं कभी-कबार आँख भर आती है
उस रास्ते पर जहाँ ,
मैं बच्चों की तरहे तुझसे जिद्द करती थी
कदम आगे ही नहीं बढ़ पाते
लगता है जैसे तू वहीँ कहीं होगा ,
और मुझे थाम लेगा
मैं जानती हूँ,
ये अधूरापन मेरा भी है और तेरा भी
तू मेरा जैसा बन गया और मैं तेरे जैसी
एक होकर भी दो टुकड़े हो गए
जो कभी ना जुड सके इतने अलग हो गए
इतने पास होकर भी ,
बताओ ना
हम कैसे इतने दूर हो गए?
जो भी हो साथी मेरे ,
तू भूलकर भी ये मत सोचना
मैं ताने मार रही हूँ
पर यूहीं कभी-कबार आँख भर आती है
कितनी अधूरी कहानी लेकर जिंदा रहता है इंसान
हमारी भी कहानी अधूरी ही रह गई
वादों की अनोखी दास्तान होती है ,
जब करते हैं बस उसी पल में वे सच होते हैं
समय के संग ,
मैं भी बहती चली गई
और तू भी
ना वादे वहीँ रहते हैं ना मैं और तू
बाहर तो फूल थे खुशबू थी,
अन्दर कांटे कहाँ से निकल आये
शायद कांटे वहां हमेशा से थे,
मैंने तूने पहले कभी टटोले नहीं थे
जैसे ही कांटे चुभे हम अलग हो गए
अपने अपने रास्तों के राही हो गए
मेरे साथी,
तू ये तो नहीं सोच रहा
मैं तुझे दोष दे रही हूँ
नहीं रे
यूहीं कभी-कबार आँख भर आती है
तूने मैंने मिलकर ही सब तोड़ा
जैसे हों कांच के बर्तन
फिर क्यों आंसू आये
फिर क्यों दिल पुकारे
ना तू समझा मुझे
ना मैं देख पाई तुझे आँख भरकर
एक झोका आया
और सब बिखर गया
एक कतरा भी ना बाकी रहा
मेरे साथी ,
कुछ तो जवाब दे ,
जब तुझसे मिली थी तो लागा था ,
जैसे बरसों के इंतज़ार के बाद ,
बंजर में बूंदे पड़ी हों
फिर कैसे तू बदल गया ?
कैसे मैं बदल गई ?
जाने कब कैसे छोटी छोटी वजह,
तुझसे मुझसे बड़ी हो गई
ऐसे जुदा हो गए
जैसे कोई रिश्ता नाता न हो
लेकिन एक बात बताओ साथी
दूर तो हम गए ,
पर तू थोडा सा मुझमें आ गया
मैं थोड़ी सी तुझमें चली गई
अब साथ रहें या ना रहें
एक दुसरे के साथी रहेंगे !
कुछ तो है
ये कैसी बैचेनी है
जो ना कुछ कहने देती है ना चुप्पी ही सादती है
कभी मन होता है,
तुम्हें छू कर देखूं
तुम्हारी हँसी को दिल से लगाकर देखूं
उन प्यारी सी आँखों में अपनी तस्वीर को झाँकूँ
पास आकर तुम्हें महसूस करूँ
बीच की सारी दूरियों को मिटाकर,
रात के सन्नाटे में तुम्हारा हाथ थामकर बैठूं
बिना कुछ कहे तुम्हें घंटों तक ताकूँ
तुम्हारी रुकी रुकी सांसों में,
अपनी सांसों की गर्मी दाल दूँ
पर मैं जानती हूँ,
तुम चले जाओगे कुछ देर में
कुछ कहना है तुमसे इससे पहले तुम जाओ ,
पता नहीं कैसे कहूँ
शायद मैं भी नहीं जानती वो क्या है
जो होटों पर है,
पर शब्दों में पिरो नहीं पाती
तुमसे कोई शिकायत नहीं है मुझे
तुम्हें पाने की भी तमन्ना नहीं है मुझे
फिर भी कुछ है जो मुझे तुमसे जोड़ देता है
तुम्हारी तरफ खीचता है
अलविदा कहने से डरता है
सब जानकार भी आँख मूंद लेती हूँ
कल क्या होगा उस सोच को,
किसी कोने में दबा देती हूँ
कुछ तो है हम दोनों के बीच
उस 'कुछ' का नाम तलाशती हूँ
--Fri, 08 Jun २००७
जो ना कुछ कहने देती है ना चुप्पी ही सादती है
कभी मन होता है,
तुम्हें छू कर देखूं
तुम्हारी हँसी को दिल से लगाकर देखूं
उन प्यारी सी आँखों में अपनी तस्वीर को झाँकूँ
पास आकर तुम्हें महसूस करूँ
बीच की सारी दूरियों को मिटाकर,
रात के सन्नाटे में तुम्हारा हाथ थामकर बैठूं
बिना कुछ कहे तुम्हें घंटों तक ताकूँ
तुम्हारी रुकी रुकी सांसों में,
अपनी सांसों की गर्मी दाल दूँ
पर मैं जानती हूँ,
तुम चले जाओगे कुछ देर में
कुछ कहना है तुमसे इससे पहले तुम जाओ ,
पता नहीं कैसे कहूँ
शायद मैं भी नहीं जानती वो क्या है
जो होटों पर है,
पर शब्दों में पिरो नहीं पाती
तुमसे कोई शिकायत नहीं है मुझे
तुम्हें पाने की भी तमन्ना नहीं है मुझे
फिर भी कुछ है जो मुझे तुमसे जोड़ देता है
तुम्हारी तरफ खीचता है
अलविदा कहने से डरता है
सब जानकार भी आँख मूंद लेती हूँ
कल क्या होगा उस सोच को,
किसी कोने में दबा देती हूँ
कुछ तो है हम दोनों के बीच
उस 'कुछ' का नाम तलाशती हूँ
--Fri, 08 Jun २००७
Wednesday, December 8, 2010
मेरा बचपन
कल शाम कुछ बच्चों को गली में खेलते देखा
नंगे पैर मस्ती में लुक्का छुपी करते देखा
उनकी खिलखिलाती हंसी सुनकर
मैं भी अपने बचपन में खो गई
कितने खूबसूरत थे वो मासूमियत के दिन
वो भागते रहना और कभी ना थकना
माँ कहती नंगे पैर बाहर मत जाना
मैं थी की कभी ना सुनती बस निकल जाती
हमेशा से अपनी मन मानी करनी थी
पता नहीं कैसे ऊँचें-ऊँचें पेड़ों से
ऐसे ही छलाँग लगा देती थी
झूठ बोलकर घर से निकल जाती
दोस्तों के साथ नया कोई खेल खेलती
मेरे पड़ोस में वो नीम का बड़ा पेड़,
उसकी पीले रंग की पकी निबोलियाँ
उस पर कांव-कांव करता हुआ कौआ
इधर उधर मटकती हुई गिलहरी
गर्मियों में सारी दोपहर उसके झूलों पर झूलती
मेहँदी से, आड़े तिरछे हथेली पर फूल बनाती
खुद को बहुत बड़ा कलाकार समझती
कभी मुझे रंग बिरंगी तितली अपने पास बुलाती
उसके पीछे भागते-भागते कीचड़ में जा गिरती
कभी तालाब के बीच में खिले कमल देखकर
उसके अन्दर स्कूल ड्रेस में ही घुस जाती
माँ कोई बहाने ना सुनती
मेरी आँखों से तुरंत सब जान जाती
और फिर खूब डाट पड़ती
एक एक रूपया गुल्लक में जमा करती
मेले से कभी गुडिया कभी गुब्ब्बरें लाती
गैस के गुब्ब्बरें मुझे बहुत भाते
हर मेले से लेकर आती
माँ मुझ पर आज भी हंसती है
गुब्बारे के बिना तो मरी जाती थी हमरी लल्ली
सांझ के समय ,
सूरज धीरे धीरे तालाब में सरकता जाता
मैं आसमान में कभी पहाड़, कभी रगों से भरी नदी देखती
मंदिर में बजती हुई आरती
रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम
मस्जिद में होती हुई अज़ान
अल्लाह हु अकबर
आज भी वो सांझ का मंजर मेरे अन्दर है
अब उस गाँव में,
ना वो नीम का पेड़ है
उसकी जगह इंटों का एक घर है
मेले अब कोई जाता नहीं
वो तालाब कब का सूख गया
लेकिन मेरा बचपन कहीं,
आज भी मेरे अन्दर मुस्कुराता है खिलखिलाता है
जब भी कोई तितली मेरे पास से गुजरती है सड़क पर
तो मैं उसका हाल चाल पूंछ ही लेती हूँ
ढलते सूरज को तालाब की बजाए
एक टावर के पीछे सरकता देख लेती हूँ
कहीं नीम का पेड़ तो नजर नहीं आता ,
लेकिन गिलहरी मेरे पड़ोस में मटकती है
और कौय की जगह,
कबूतर मेरी खिड़की पर बोलता रहता है
शुक्र है,
इस शहर की भाग-दौड़ में भी,
मेरा बचपन मेरे साथ रह गया
नंगे पैर मस्ती में लुक्का छुपी करते देखा
उनकी खिलखिलाती हंसी सुनकर
मैं भी अपने बचपन में खो गई
कितने खूबसूरत थे वो मासूमियत के दिन
वो भागते रहना और कभी ना थकना
माँ कहती नंगे पैर बाहर मत जाना
मैं थी की कभी ना सुनती बस निकल जाती
हमेशा से अपनी मन मानी करनी थी
पता नहीं कैसे ऊँचें-ऊँचें पेड़ों से
ऐसे ही छलाँग लगा देती थी
झूठ बोलकर घर से निकल जाती
दोस्तों के साथ नया कोई खेल खेलती
मेरे पड़ोस में वो नीम का बड़ा पेड़,
उसकी पीले रंग की पकी निबोलियाँ
उस पर कांव-कांव करता हुआ कौआ
इधर उधर मटकती हुई गिलहरी
गर्मियों में सारी दोपहर उसके झूलों पर झूलती
मेहँदी से, आड़े तिरछे हथेली पर फूल बनाती
खुद को बहुत बड़ा कलाकार समझती
कभी मुझे रंग बिरंगी तितली अपने पास बुलाती
उसके पीछे भागते-भागते कीचड़ में जा गिरती
कभी तालाब के बीच में खिले कमल देखकर
उसके अन्दर स्कूल ड्रेस में ही घुस जाती
माँ कोई बहाने ना सुनती
मेरी आँखों से तुरंत सब जान जाती
और फिर खूब डाट पड़ती
एक एक रूपया गुल्लक में जमा करती
मेले से कभी गुडिया कभी गुब्ब्बरें लाती
गैस के गुब्ब्बरें मुझे बहुत भाते
हर मेले से लेकर आती
माँ मुझ पर आज भी हंसती है
गुब्बारे के बिना तो मरी जाती थी हमरी लल्ली
सांझ के समय ,
सूरज धीरे धीरे तालाब में सरकता जाता
मैं आसमान में कभी पहाड़, कभी रगों से भरी नदी देखती
मंदिर में बजती हुई आरती
रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम
मस्जिद में होती हुई अज़ान
अल्लाह हु अकबर
आज भी वो सांझ का मंजर मेरे अन्दर है
अब उस गाँव में,
ना वो नीम का पेड़ है
उसकी जगह इंटों का एक घर है
मेले अब कोई जाता नहीं
वो तालाब कब का सूख गया
लेकिन मेरा बचपन कहीं,
आज भी मेरे अन्दर मुस्कुराता है खिलखिलाता है
जब भी कोई तितली मेरे पास से गुजरती है सड़क पर
तो मैं उसका हाल चाल पूंछ ही लेती हूँ
ढलते सूरज को तालाब की बजाए
एक टावर के पीछे सरकता देख लेती हूँ
कहीं नीम का पेड़ तो नजर नहीं आता ,
लेकिन गिलहरी मेरे पड़ोस में मटकती है
और कौय की जगह,
कबूतर मेरी खिड़की पर बोलता रहता है
शुक्र है,
इस शहर की भाग-दौड़ में भी,
मेरा बचपन मेरे साथ रह गया
Saturday, December 4, 2010
मस्ती
तुझसे मुलाकात के बाद ये मेरा हाल है
या फिर इस हाल में तुझसे मुलाकात हो गई
संगीत के तार बजते हैं हर पल कहीं
जैसे अमृत बरस रहा हो हर तरफ से
इतनी मस्ती छाई है कि पता नहीं क्या करूँ
सब कुछ जैसे नया जन्म ले रहा हो
आँखों में एक नई रोशनी है
हवा में कहाँ से इतनी खुशबू आ गई है
मन कहता है
बाँध के घुँघरू बस नाचती रहूँ
सारे गली-मुहल्ले में शोर मचाऊँ
अंग अंग में रंग भर गया प्रेम का
इस प्रेम को लेकर अब जाऊँ कहाँ
होंठों पर बिखरी रहती है हंसी
सब पूछते है मुझसे इस मस्ती का राज़
क्या मिल गया है तुझे?
जो खिली है रात में सुबहे की पहली किरण जैसी
थक नहीं जाती नाचते-नाचते
क्या कहूँ मैं उनसे
ऐसा रंग चढ़ा है उतरने का नाम ही नहीं लेता
-- Wed, २० जून २००७
या फिर इस हाल में तुझसे मुलाकात हो गई
संगीत के तार बजते हैं हर पल कहीं
जैसे अमृत बरस रहा हो हर तरफ से
इतनी मस्ती छाई है कि पता नहीं क्या करूँ
सब कुछ जैसे नया जन्म ले रहा हो
आँखों में एक नई रोशनी है
हवा में कहाँ से इतनी खुशबू आ गई है
मन कहता है
बाँध के घुँघरू बस नाचती रहूँ
सारे गली-मुहल्ले में शोर मचाऊँ
अंग अंग में रंग भर गया प्रेम का
इस प्रेम को लेकर अब जाऊँ कहाँ
होंठों पर बिखरी रहती है हंसी
सब पूछते है मुझसे इस मस्ती का राज़
क्या मिल गया है तुझे?
जो खिली है रात में सुबहे की पहली किरण जैसी
थक नहीं जाती नाचते-नाचते
क्या कहूँ मैं उनसे
ऐसा रंग चढ़ा है उतरने का नाम ही नहीं लेता
-- Wed, २० जून २००७
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