कल शाम कुछ बच्चों को गली में खेलते देखा
नंगे पैर मस्ती में लुक्का छुपी करते देखा
उनकी खिलखिलाती हंसी सुनकर
मैं भी अपने बचपन में खो गई
कितने खूबसूरत थे वो मासूमियत के दिन
वो भागते रहना और कभी ना थकना
माँ कहती नंगे पैर बाहर मत जाना
मैं थी की कभी ना सुनती बस निकल जाती
हमेशा से अपनी मन मानी करनी थी
पता नहीं कैसे ऊँचें-ऊँचें पेड़ों से
ऐसे ही छलाँग लगा देती थी
झूठ बोलकर घर से निकल जाती
दोस्तों के साथ नया कोई खेल खेलती
मेरे पड़ोस में वो नीम का बड़ा पेड़,
उसकी पीले रंग की पकी निबोलियाँ
उस पर कांव-कांव करता हुआ कौआ
इधर उधर मटकती हुई गिलहरी
गर्मियों में सारी दोपहर उसके झूलों पर झूलती
मेहँदी से, आड़े तिरछे हथेली पर फूल बनाती
खुद को बहुत बड़ा कलाकार समझती
कभी मुझे रंग बिरंगी तितली अपने पास बुलाती
उसके पीछे भागते-भागते कीचड़ में जा गिरती
कभी तालाब के बीच में खिले कमल देखकर
उसके अन्दर स्कूल ड्रेस में ही घुस जाती
माँ कोई बहाने ना सुनती
मेरी आँखों से तुरंत सब जान जाती
और फिर खूब डाट पड़ती
एक एक रूपया गुल्लक में जमा करती
मेले से कभी गुडिया कभी गुब्ब्बरें लाती
गैस के गुब्ब्बरें मुझे बहुत भाते
हर मेले से लेकर आती
माँ मुझ पर आज भी हंसती है
गुब्बारे के बिना तो मरी जाती थी हमरी लल्ली
सांझ के समय ,
सूरज धीरे धीरे तालाब में सरकता जाता
मैं आसमान में कभी पहाड़, कभी रगों से भरी नदी देखती
मंदिर में बजती हुई आरती
रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम
मस्जिद में होती हुई अज़ान
अल्लाह हु अकबर
आज भी वो सांझ का मंजर मेरे अन्दर है
अब उस गाँव में,
ना वो नीम का पेड़ है
उसकी जगह इंटों का एक घर है
मेले अब कोई जाता नहीं
वो तालाब कब का सूख गया
लेकिन मेरा बचपन कहीं,
आज भी मेरे अन्दर मुस्कुराता है खिलखिलाता है
जब भी कोई तितली मेरे पास से गुजरती है सड़क पर
तो मैं उसका हाल चाल पूंछ ही लेती हूँ
ढलते सूरज को तालाब की बजाए
एक टावर के पीछे सरकता देख लेती हूँ
कहीं नीम का पेड़ तो नजर नहीं आता ,
लेकिन गिलहरी मेरे पड़ोस में मटकती है
और कौय की जगह,
कबूतर मेरी खिड़की पर बोलता रहता है
शुक्र है,
इस शहर की भाग-दौड़ में भी,
मेरा बचपन मेरे साथ रह गया
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dost...dil to abhi bhi bachchaa hi hai :)
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