मंदिर-मस्ज़िद जाना क्यों ?
क्या रखा मक्का-मदीने में ?
मेरे यार की बाहों में ज़न्नत मेरी,
मेरे यार की आँखों में मेरा खुदा!
मेरे यार की पलकों में करूं नमाज़,
मेरे यार की सांसें मेरा तीर्थधाम!
मंदिर-मस्ज़िद जाना क्यों ?
क्या रखा मक्का-मदीने में ?
गवाई थी उम्र मैंन, कागज़ के टुकड़ों में!
भटक रही थी रूह मेरी, यूहीं सड़कों के गड्डों में !
वैसे तो इसे कोई मुकाम नहीं मिलता,
तेरी मुहब्बत ही मुकाम बन गई इसका !
अब मंदिर - मस्ज़िद जाना क्यों ?
क्या रखा मक्का-मदीने में ?
मेरे यार के हवालें मेरी उम्र सारी!
करूं इबादत बस अपने यार की !
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
ख़ूबसूरत प्रस्तुति के लिए बधाई .
ReplyDeleteकृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारें /