Monday, January 24, 2011

खुदा मेरे....

टुकड़ों टुकड़ों में क्यों मिलता है
कभी तो पूरा आकर मिल मुझसे
दुनिया मुझे बेगानी लगती है
दुनिया को लगती मैं पागल

ये कौन सा रहस्य है
जो तूने मेरे भीतर जड़ा
निडर अँधेरे में चलती हूँ
अकेले अकेले मुस्कुराती हूँ
ना बीता कल मुझे सताता है
ना आने वाले कल का बोध रहता है

कभी व्याकुल होकर रोती हूँ
कभी मस्ती से भरपूर झूमती हूँ
इतना नाचती हूँ कि
पांव में छाले पड़ जाते हैं
इतना रोती हूँ कि
आँखें सूज जाती हैं

किसी से जाकर मैं कहूं भी क्या
इस व्याकुलता में अजब सी मस्ती
इस मस्ती में चुभती व्याकुलता
चुपचाप ऐसे ही बैठी रहती हूँ रातों में
आँखों को मूँद घंटों तक
ना फ़िक्र होती है आईना देखने की
ना जरूरत लगती है काज़ल की

ये मेरा भ्रम है या हकीकत
तेरे मिलन की प्यास है जगी
या दुनिया से हुई थकान मुझे
कुछ तो आकर समझा दे

ये कौन सा रोग लगा मुझे
मैं होकर भी कहीं नहीं होती
नाचती हूँ पर मैं नहीं नाचती
बस नाच होता है मैं नहीं होती
लिखती हूँ पर मैं नहीं लिखती
बस शब्द मेरे होते है और भाव तेरे
लगता है मैं हूँ ही नहीं कहीं

हल्का सा दर्द भरा रहता है सीने में
कदम उठते हैं थम थमकर
कहने सुनने को कुछ नहीं रहा
सुनसान हुआ बाज़ार सारा
सारे बंधन छोड़कर
लगे तेरा बंधन प्यारा
कैसे कच्चे धागे से तूने
लिया अपनी ओर खीच मुझे
हर चीज बेमतलब हो गई
तेरी धुंधली सी झलक पाकर

क्या हूँ मैं तेरा अंग खुदा
जो बिलखती हूँ तुझसे बिछड़कर
ना होश रहे खुद का
ना आये ख़याल किसी दूसरे का
हर बात शुरू ख़त्म तुझसे
हर बात में जिक्र तेरा

गिर पडूँगी कहीं चित होकर
हो जायेगा ख़त्म अस्तित्त्व मेरा
अब इससे ज्यादा मत आजमा खुदा मेरे

टुकड़ों टुकड़ों में क्यों मिलता है
कभी तो पूरा आकर मिल मुझसे

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