Friday, August 12, 2011

शब्दों का ताना-बाना

शब्दों का ताना-बाना बुनते बुनते
मैं भूल ही जाती हूँ कि मैं हूँ कौन
भारी भरकम शब्दों से खेलने की आदत
लोगों से प्रशंसा सुनने की भूख
मुझसे बार बार झूठ बुलवा देती है

विचारों की लड़ियाँ कहाँ दम तोड़ती हैं
भावनाओं का समंदर कहाँ शुरू होता है
इसका एहसास ही नहीं रहता
विचारों और भावनाओं के झूले में
कभी इस छोर कभी उस छोर डोलती रहती हूँ
बीच से कहीं कुछ आधा अधूरा सा चुराकर
शब्दों का एक महल बनाती हूँ
जहाँ सच और झूठ में फासला नहीं रहता
कभी खुल जाये आँख गहरी नींद से
और ढह जाए शब्दों का महल
तो किसी कोने में बैठकर रो लेती हूँ

हे ईश्वर
इन शब्दों ने मुझे छली बना दिया
जो है वो ये कहने में असमर्थ
जो है नहीं
उसे कहने में इन्हें महारत हासिल
इनकी सुन्दरता इतनी अदभुत
कि मैं अपना होश खो बैठती हूँ
और सकपकाई सी उनके जाल में
हर रोज थोड़ा और फंसती जाती हूँ

अजीब बिडम्बना है
शब्दों द्वारा शब्दों से परे जाने की कोशिश
शब्दों की चौड़ी सी दीवार
मेरे और सच के बीच
जिसे मैं लांघ नहीं पाती
बार बार रास्ता भटक जाती हूँ
शब्दों का शोर ऐसी आंधी पैदा करता है
कि मेरे होश का दीपक बुझ जाता है

हे ईश्वर
कोई राह दिखा मुझे
शब्दों के कपट से तू ही बचा मुझे
लोगों से प्रसंशा सुनने की भूख से
थोड़ा सा ऊपर उठा मुझे
अपने ह्रदय का गान गा सकूँ
छल कपट झूठ के जाल से मुक्त रहूँ
इतना बुद्धिमान बना मुझे !

2 comments:

  1. सत्य है ... शब्दों में उलझ कर कई बार ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है ... अच्छी रचना है ...

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  2. सुन्दर रचना, बहुत सार्थक प्रस्तुति
    , स्वाधीनता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
    मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें .

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