Friday, February 4, 2011

आइना

कई बार मैं महान बनने की कोशिश करती हूँ
उस कोशिश में बेतुके से कारनामे होते है

जो महान लोगो ने पुस्तके पढ़ीं,
मैं भी वही पढ़ने लगती हूँ
इतना मजा तो नहीं आता
पर बहस हो किसीसे तो
उनके काव्य का उपयोग करती हूँ

जो महान लोग पोशाक पहनते हैं
मैं भी वैसे ही पहनने लगती हूँ
सुन्दर तो नहीं लगती
पर भीड़ में अलग दिखाई देती हूँ

उन्होंने जिस कलाकार को सरहाया
मैं भी उसके गान करने लगती हूँ
वो जिन शब्दों में अपने को व्यक्त करते हैं
मैं भी वही भाषा दोहराती हूँ

जो कुछ भी महान लोग करते है
मैं हुबाहू करती हूँ
जाने कहाँ चूक जाती हूँ
महान नहीं बन पाती हूँ

मेरी हाव भाव देखकर
दुनिया की नज़रों में,
मेरी हैसियत थोड़ी बड़ जाती है
पर अपनी नज़रों में,
खुद का बजूद लड़खड़ाती पाती हूँ

आइना ठहाके मारकर हँसता है
किसे ठग रही है ?
तेरी हकीक़त तुझे पता
गिराले परदे चाहें जितने
बेपर्दा तो होना है आज नहीं तो कल
लूटले तारीफें जितनी चाहे लोगो की
पूरी करले तमन्ना दिखावा करने की

कभी तो अपने घर लौटेगी
जब ऊब जाए दिल तेरा पर्देदारी से
न रहे कोई रस तारीफों में
न रहे कोई पीड़ा आलोचनाओं में
न रहे उत्साह महानता को गले लगाने में
न रहे डर हैसियत मिट जाने में

आ जाना मेरे पास तू
देखलेना अपनी असली सूरत तू
जो आंखें छिपती है इतने सारे राज
उन सारे राजों को बहा देना तू
पानी सी बेरंग होकर
मेरे रुबारु आ जाना तू

No comments:

Post a Comment