Wednesday, February 23, 2011

माँ

एक गहरी प्यास है कहीं
जो कोई रिश्ता बुझा नहीं पाता
तेरे सीने में जो गर्मी थी
कोई मुझे दे नहीं पाता

तेरे संग थी तेरा अंग थी
पूरी थी माँ
जब से अलग हुई
तब से प्यासी हूँ
तब से भटकी हूँ

वो प्यास न बुझी
वो तेरी सीने की गर्मी न मिली
वो बेफिक्री की रातें न कटी
किसी की छाती से चिपक्के सकून की सांस न ली

तू भी पराई हो गई कुछ महीनों मैं
कभी मैं और तू एक ही थे
एक साथ साँस लेते थे
दिल की धडकनों के तार जुड़े थे
तेरा हिस्सा बनकर तेरे अन्दर जिंदा थी

बीत गए वो पल
पर उनकी लौ आज भी जलती है कहीं
उन्ही पालो के लिए तसरती हूँ कहीं

जब दुःख के बादल मंडराते थे
तू छुपा लेती थी मुझे अपने भीतर
अब किसके साथ एक होकर
जिया करूँ मैं

माँ,
उन पलों को , एक बार और जीने दे मुझे
अपने गर्भ के सुख को, एक बार और चखने दे मुझे
मेरी भटकती हुई बेजान मंजिलों में
एक जान डालके हरी करदे

समेट ले मेरी रूह को अपने भीतर
क्या करू मैं सब पाकर
क्या करू मैं बादशाह बनकर
क्या करू में दुनिया जीतकर
जब जान लिया मैंने
तेरे अन्दर जो सुख मिला
वो कहीं और नहीं है मिलने वाला

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