आँखों में थकान है
बेचैन रात है
न जाने किसका इंतज़ार है
कोई नाम नहीं है होंठों पर
दिल का मंदिर खाली है
सन्नाटे में केवल झींगुर का गीत गूंज रहा है
एक अधूरा ख़त पड़ा है मेज पर
पता नहीं कभी पूरा होगा या नहीं
एक किताब खुली है कोने में
महीनों से एक ही पन्ने पर लटकी है
इतना कुछ फैला है हर तरफ
फिर भी फुरसत है बहुत
अपना हाल तुझे सुनाने की
सोचती थी तेरे जाने के बाद
इन बेचैनीयों से राहत मिल जायेगी
पर आलम अब और भी गंभीर है
कम से कम पहले कोई नाम तो था
ये बेनाम बेचैनी
तेरी बेचैनी से भी ज्यादा बेचैन करती है
तू कभी ख्वाब में ही सही
आ तो
सन्नाटे में आंधी लाने
नैनों में घना सावन लाने
कभी बाँहों में छुपाने
कभी दूर जाने
किसी भी बहाने से आ
कोई भी नाम लेकर आ
उन पुरानी बेचैनियों लौटाने आ
कहाँ है तू ?
कभी तो आ...
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