मन के खेल निराले
कभी खुद से जीते
कभी खुद से हारे
ले उलझाय मुझे
बुने जाल बेहिसाब
एक नहीं कई हैं मन मेरे
एक मन कहे दुनिया प्यारी
दूसरा कहे कैसी व्यथा पाली
तीसरा कहे त्याग दे सब प्यारी
किस मन से जीतू किस मन से हारू
किस मन की मानू किस मन को मना लूँ
रोज बदले रूप मन मेरा
जो कल था वो आज नहीं
जो आज है कल होगा
इसका भरोसा नहीं है
किस रूप को अपना कह दूँ
किस रूप को पराया कह दूँ
है मन मेरा !!
सोने का पिंजरा
मैं मैना सी उसमे फंसी
चाबी मेरे पास पड़ी
पर मैं कभी निकल न सकी
कभी निकल भी जाती एक पिंजरे से
तो दुसरे मैं खुद ही घुस जाती
आदत है मेरी पुरानी
मन की गुलामी करने की
गुरु बदला, संगत बदली
पर मन के खेल कम न हुए
मंदिर छोड़ा, मस्ज़िद छोड़ा
पर विचारों में परिवर्तन न आया
दीवारों का बदल गया है रंग
घर जैसा था वैसा ही रह गया
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beaytiful lines
ReplyDeleteकिस मन से जीतू किस मन से हारू
किस मन की मानू किस मन को मना लूँ