Friday, March 25, 2011

काश

जुबां कुछ न कहती
बात तुम तक पहुँच जाती
मैं तुम्हें स्पर्श करती
तुम मेरे कंमपन्न को जान जाते

मैं तुम्हें देखती
तुम मेरी आंखें पढ़ लेते
काश तुम बिन कहे,
सब कुछ समझ जाते

कभी तनहा होकर भी मैं तनहा नहीं होती
तुम्हारा साया मुझे घेरे रहता है

कभी जकड़ा होता है तुमने बाँहों में
पर मीलों का फ़ासला दर्मिया होता है
घुटन होती है मुझे उस जकड़न में,
जहाँ तुम्हारा शरीर होता है पर तुम नहीं
काश तुम मेरी बेचैनी,
बिस्तर कि सिलवटों में देख पाते

कभी थम-थम चलती हैं मेरी सांसें
कहती है बैठो न थोड़ी देर मेरे पास
कभी डर से सहम जाती हैं
कौन जाने कल की सुबहे कभी न आये

कभी तुम्हारी सांसों में लय मिलाकर चलती हैं
कहती है कभी जुदा तुमसे होंगी नहीं
काश मेरी सांसों के उतार-चढ़ाव,
तुम महसूस कर पाते

थक गई में बोलते सुनते,
अब बोलों को किनारे करो
आने दो मुझे अपने भीतर
तुम समा जाओ मेरे अन्दर

पिघलने दो दर्द को,बन जाने दो दरिया
मिट जाने दो मुझे,हो जाने दो पूरा
काश हम दोनों सारी सीमाएं लांगकर,
दो न रहकर बस एक ही रह जाते

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