Friday, February 25, 2011

कल्पनाओं की उड़ान

लगाने दो पंख मुझे
अपनी कल्पनाओं के
उड़ने दो कहीं
क्या अच्छा क्या बुरा
मुझे नहीं पता

आकाश सा लहराने दो
सागर सा विस्तार पाने दो
क्या झूठ क्या सच
मुझे नहीं पता

अमृत है ये या ज़हर
इसका फैसला बाद में होगा
अभी जो सामने है उसे पीने दो
कोई मेरे साथ आयेगा या नहीं
ये उसकी मर्जी है
मुझे मेरे पथ पर बड़ने दो

बांधों मत किसी बंधन में
उड़ जाने दो कल्पनाओं के साथ कहीं

मत समझाओं मर्यादा का सबक
रखो सारा ज्ञान अपने पास
मुझे नहीं जानना मेरी मंजिल कहाँ है
पर जो विस्तृत धरातल है मेरे सामने
उस पर दौड़ जाने दो मुझे

स्वर्ग नरक तुम्हें मुबारक
उनके नाम लेकर,
मेरी कल्पनाओं की पतंग मत काटा करो

मैं नहीं उतर पाऊंगी खरी
तुम्हारी आशाओं की कसौटी पर
बार बार कटघरे में खड़ा मत किया करो
सुना करो कभी मेरी भी आवाज
अपनी आवाज इतनी ऊँची मत किया करो

तुमने क्या पाया है
इस पथ पर चलकर
जो मुझसे इस पथ पर
चलने का आग्रह करते हो
जाने दो मुझे जहाँ जाना है
क्यों पाप पुन्य को बीच में घसीटते हो

मुझमें भी प्राण है
मुझपर अपने विचारों को लादकर
वस्तु में परिवर्तित करने का प्रयास मत किया करो

कितनी बड़ी कीमत लगाते हो
इस समाज में बसर करने की
अत्मा तक तुम्हारी गुलाम रहे
ऐसी शर्ते मत लगाया करो

नहीं मानती मैं किसी शर्त को
मुझे अपनी कल्पनाओं की उड़ान भरने दो
होने दो अपने पैरों पर खड़ा
मुझे अपंग बनाने का प्रयास मत किया करो
रखों अपनी तिजोरी को अपने पास
ये जलवे मुझे दिखाया मत करो

शुभचिंतक हो या दुश्मन
सोच समझकर पिटारा खोला करो
क्यों ज़िद पर अड़े हो
तुम्हारे जैसी बनकर जियूं
मुझे खुली हवा में अंगडाई लेने दो
उड़ जाने दो कल्पनाओं के साथ कहीं
अब गिर पडूँ या फिसल पडूँ
इसका जिक्र तुम मत करो

क्यों समंदर की गहराई दिखाते हो
इसमें तैरना सिखा दिया करो
क्यों आंधियों से डराते हो
टूटे घरोंदा को बनाना सिखा दिया करो
क्यों मौत की दहशत जगाते हो
इससे पार जाने का मार्ग बता दिया करो

कुछ नहीं कर सकते तो ठीक है
कम से कम पथ में ,
रोड़े लाकर तो मत डाला करो
डूब जाने दो जहाँ से निकला न जा सके
पर किनारे पे खड़ा होने के लिए मत कहा करो

मुझे अपने पाप पुन्य का हिसाब करने दो
तुम क्यों अपने ग्रन्थ खोल
मेरे कर्मो का जोड़ भाग करते हो
मैंने तो कभी नहीं कहा तुमसे कुछ
तुम क्यों मेरे करने में अड़चन डालते हो

उड़ जाने दो कल्पनाओं के साथ कहीं
मुझसे मेरा पता मत पूछा करो
मुझसे मेरा पता मत पूछा करो

Wednesday, February 23, 2011

माँ

एक गहरी प्यास है कहीं
जो कोई रिश्ता बुझा नहीं पाता
तेरे सीने में जो गर्मी थी
कोई मुझे दे नहीं पाता

तेरे संग थी तेरा अंग थी
पूरी थी माँ
जब से अलग हुई
तब से प्यासी हूँ
तब से भटकी हूँ

वो प्यास न बुझी
वो तेरी सीने की गर्मी न मिली
वो बेफिक्री की रातें न कटी
किसी की छाती से चिपक्के सकून की सांस न ली

तू भी पराई हो गई कुछ महीनों मैं
कभी मैं और तू एक ही थे
एक साथ साँस लेते थे
दिल की धडकनों के तार जुड़े थे
तेरा हिस्सा बनकर तेरे अन्दर जिंदा थी

बीत गए वो पल
पर उनकी लौ आज भी जलती है कहीं
उन्ही पालो के लिए तसरती हूँ कहीं

जब दुःख के बादल मंडराते थे
तू छुपा लेती थी मुझे अपने भीतर
अब किसके साथ एक होकर
जिया करूँ मैं

माँ,
उन पलों को , एक बार और जीने दे मुझे
अपने गर्भ के सुख को, एक बार और चखने दे मुझे
मेरी भटकती हुई बेजान मंजिलों में
एक जान डालके हरी करदे

समेट ले मेरी रूह को अपने भीतर
क्या करू मैं सब पाकर
क्या करू मैं बादशाह बनकर
क्या करू में दुनिया जीतकर
जब जान लिया मैंने
तेरे अन्दर जो सुख मिला
वो कहीं और नहीं है मिलने वाला

Monday, February 14, 2011

नाटक

हर कोई दलदल में फंसा है
किससे क्या शिकयत करू
जिसे देखो गड्डे में गिरा है
किससे क्या उम्मीद रखूं
सोचती थी मेरे सिवा
हर कोई साफ़ पानी में खड़ा है
अब जाकर जाना
सब मेरे साथ कीचड में धसे हैं
सारी उमीदें दम तोड़ चुकी हैं मेरी
किसी और ने नहीं
अब मैंने ही उनका दामन छोड़ दिया है

जब नहीं है भरोसा खुद का
किसी और को जकड़कर मैं क्या करूँ?

किस पर अपना गुस्सा उड़ेला करूँ ?
हर कोई गुस्से से पगलाया है
किसके कंधे पर सर रखकर रोया करूँ
जिसे देखो उसका दमन दर्द से भरा है

ये कैसी है ज़िन्दगी?
किससे कहूँ मैं आखिर कि मुझे चोट लगी है
थोड़ा मरहम लगा दो
हर किसीने बेशुमार ज़ख्मों का ख़जाना छिपा रखा है

कहीं भनक न लग जाय पड़ोसी को
किसी ने हंसी का मुखौटा चढ़ा रखा है
तो किसी ने काम को हर ज़ख्म की दवा बना रखा है
जिसे देखो वो भाग रहा है अपने आपसे
कोई उड़ाता है धुएं में ज़िन्दगी का ग़म
और किसी दिन वो भी इस धुय में फ़ना हो जाता है
कोई बैठा रहता है मैहखाने में भूलकर सबकुछ
और दम तोड़ देता है वही पर आखिर

भाग तो नहीं पाता है कोई अपने आपसे
पर इस नासमझी में सारी उम्र गुजार देता है
जिसे आ जाय होश इस भागमभाग में
वो ज़िन्दगी के नाटक का दर्शक हो जाता है
जब मैं बन जाती हूँ दर्शक इस नाटक की
अधिकत्तर लोगो को बेचारा पाती हूँ

करुणा उभर आती है हर किसी के लिए ह्र्दय में
थोडा सा प्यार से किसी को गले लगा लेती हूँ
कुछ घड़ियाँ साथ में बैठ जाती हूँ
थोडा सा ग़म बाँट लेती हूँ किसीका
थोड़ी हंसी ले आती हूँ किसी के होठों पर

पर जब बन जाती हूँ उसी नाटक का हिस्सा
तो उन्हीं मजबूर लोगो पर अपनी उमीदों का
भारी भरकम बोझ डाल देती हूँ
सारी हक़ीक़त अनदेखी कर जाती हूँ
बैल से दूध निकालने लगती हूँ
भैस पर सफ़ेद लीपा पोती करके,
उसे गाय बनाने में लग जाती हूँ
हर कोई बदल जाय कुछ और बन जाय
ऐसी अंधाधुंध कोशिश में लग जाती हूँ

नतीजा तो ख़ाक निकलता है कोशिश का
पर मैं जरूर नाटक में शामिल हो जाती हूँ
ओर ज़िन्दगी बोझ लगने लगती है
जिसे ढो रहा है हर कोई
मिल गई है तो कटती जा रही है

जब दर्शक होती हूँ इस नाटक की
तो ज़िन्दगी का रुख ही बदल जाता है
सबकुछ हसीन लगने लगता है
मरना भी, जीना भी
हँसना भी, रोना भी
प्यार करना भी, बिछड़ना भी
ज़िन्दगी वही रहती है जैसी है
तुम नाटक में शामिल हो या दर्शक हो
बस इसी बात से हर बात बदल जाती है

Friday, February 11, 2011

बेचैनी

आँखों में थकान है
बेचैन रात है
न जाने किसका इंतज़ार है

कोई नाम नहीं है होंठों पर
दिल का मंदिर खाली है
सन्नाटे में केवल झींगुर का गीत गूंज रहा है

एक अधूरा ख़त पड़ा है मेज पर
पता नहीं कभी पूरा होगा या नहीं
एक किताब खुली है कोने में
महीनों से एक ही पन्ने पर लटकी है

इतना कुछ फैला है हर तरफ
फिर भी फुरसत है बहुत
अपना हाल तुझे सुनाने की

सोचती थी तेरे जाने के बाद
इन बेचैनीयों से राहत मिल जायेगी

पर आलम अब और भी गंभीर है
कम से कम पहले कोई नाम तो था

ये बेनाम बेचैनी
तेरी बेचैनी से भी ज्यादा बेचैन करती है

तू कभी ख्वाब में ही सही
आ तो
सन्नाटे में आंधी लाने
नैनों में घना सावन लाने
कभी बाँहों में छुपाने
कभी दूर जाने

किसी भी बहाने से आ
कोई भी नाम लेकर आ
उन पुरानी बेचैनियों लौटाने आ
कहाँ है तू ?
कभी तो आ...

Thursday, February 10, 2011

झुरियाँ

जब कभी देखती हूँ चेहरा आईना में
न चाहते हुए भी मेरी निगाहें बार बार
मेरी झुरीयों पर आकर स्थिर हो जाती है
बचपन में चहरे पर कोमलता और मासूमियत थी
जवानी में कुछ कर दिखाने का जोश और जूनून
अब बस एक गहरा ठहराब और ये झुरियाँ
कितना कुछ कहती हैं ये झुरियाँ

मेरे जीवन संघर्षो की पूरी दास्तान इनमे छिपी है
कभी गिरते गिरते संभली हूँ मैं
कभी गिरकर चोट खाकर खड़ी हुई मैं
कभी तपती धूप में,
स्कूल के लिए मीलों चली हूँ मैं
कभी खुद को तपाया है उस धूप में
नौकरी न मिलने पर
कभी बारिश में ठिठुरी हूँ मैं
कभी एक रूपये के लिए तरसी हूँ मैं
कभी इस चहरे के सोंद्य्रे पर,
दिवाने हुए हैं लोग कई बार
कभी इसके दाग धब्बे देखकर
मुहँ मोड़कर चले गए कई लोग

ये झुरियाँ सबूत हैं
बचपन के गुजर जाने का
जवानी में खाई ठोकरों का
कुछ साल में आने वाले
बुडापे का

समझ नहीं आता
हर कोई जवान क्यों बना रहना चाहता है
इन झुरीयों से इतना क्यों घबराता है
हर रोज नए नुस्के बेचे जाते हैं बाज़ार में,
कैसे रहे चेहरा जवान बुड़ापे में
किसी तरह से टल जाए इन झुरीयों का आना
कुछ दिन, कुछ महीनों या फिर कुछ सालों के लिए
पर समय के पाइये को कैसे रोकेगे दोस्तों
बाहर बदल भी लो तो क्या
अन्दर के जगत को कैसे बदलोगे

हो सकता है मिल जाय कोई
इस चहरे पर दुनिया लुटाने वाला
तुम्हारी खूबसूरत जुल्फों पर
ग़ज़लें सुनाने वाला
चमकते नेनों में डूबने वाला

पर कभी तो आयगा वो दिन
जब सब कुछ छूट जायगा प्यारे
बुडापा चोखट पर खड़ा दस्तक देगा
उस दिन क्या दोगे जवाब
लौटा दो मेरी जवानी के दिन
ले जाओ ये लाठी हाथ की मेरी
होने दो सीधा खड़ा मुझे

कैसा समाज है ये
चेहरे पे लटकता है
जुल्फों में अटकता है
गंगा में पाप धोता है
पुन कमाने के लिए काशी जाता है
जब मरने का समय आय
तो राम राम जपता है
सारा जीवन व्यर्थ गवाया
ये सोच रोता रोता
दुनिया से विदा लेता है
मरना जीवन का अंत सत् है
जो उसने समेटा सब रह जाना है
मरते वक़्त ही जान पाता है

Friday, February 4, 2011

आइना

कई बार मैं महान बनने की कोशिश करती हूँ
उस कोशिश में बेतुके से कारनामे होते है

जो महान लोगो ने पुस्तके पढ़ीं,
मैं भी वही पढ़ने लगती हूँ
इतना मजा तो नहीं आता
पर बहस हो किसीसे तो
उनके काव्य का उपयोग करती हूँ

जो महान लोग पोशाक पहनते हैं
मैं भी वैसे ही पहनने लगती हूँ
सुन्दर तो नहीं लगती
पर भीड़ में अलग दिखाई देती हूँ

उन्होंने जिस कलाकार को सरहाया
मैं भी उसके गान करने लगती हूँ
वो जिन शब्दों में अपने को व्यक्त करते हैं
मैं भी वही भाषा दोहराती हूँ

जो कुछ भी महान लोग करते है
मैं हुबाहू करती हूँ
जाने कहाँ चूक जाती हूँ
महान नहीं बन पाती हूँ

मेरी हाव भाव देखकर
दुनिया की नज़रों में,
मेरी हैसियत थोड़ी बड़ जाती है
पर अपनी नज़रों में,
खुद का बजूद लड़खड़ाती पाती हूँ

आइना ठहाके मारकर हँसता है
किसे ठग रही है ?
तेरी हकीक़त तुझे पता
गिराले परदे चाहें जितने
बेपर्दा तो होना है आज नहीं तो कल
लूटले तारीफें जितनी चाहे लोगो की
पूरी करले तमन्ना दिखावा करने की

कभी तो अपने घर लौटेगी
जब ऊब जाए दिल तेरा पर्देदारी से
न रहे कोई रस तारीफों में
न रहे कोई पीड़ा आलोचनाओं में
न रहे उत्साह महानता को गले लगाने में
न रहे डर हैसियत मिट जाने में

आ जाना मेरे पास तू
देखलेना अपनी असली सूरत तू
जो आंखें छिपती है इतने सारे राज
उन सारे राजों को बहा देना तू
पानी सी बेरंग होकर
मेरे रुबारु आ जाना तू

Thursday, February 3, 2011

खेल

आज ढलते सूरज की आड़ में से,
मैंने चुपके से एक खेल देखा
तो मेरी हँसी बेकाबू हो गई
लोग पागलखाने में ना डाल दे
ये सोचकर थोड़ी सहम गई

ज़र्रे ज़र्रे में खुदा है
उसीकी रहमत से संसार सारा है
न कुछ भला है न कुछ बुरा है
सब उसी का रचा है

वो मिटाता है वो ही बनाता है
वो पैदा करता है वो मारता है
जाने कितने हज़ारों सालों से
ये खेल वो खेल रहा है

हम इस खेल के खिलाड़ी हैं
पर हमें इसकी भनक ही नहीं है
वो मजे लूट रहा है इस खेल में
हम लुट रहें हैं बेवजह इस खेल में

कैसा खेल है ये,
खिलाडियों ने इसे महायुद्ध समझ रखा है
अपने हिसाब से टोलियाँ में बाँट रखा है
प्रेम, बैर का दस्तूर निभाया जा रहा है
कोई किसी का खून कर रहा है
कोई खुद को ही फांसी पे लटका रहा है
किसी को प्रेम की प्यास है
कोई हर चीज से निराश है

पर इस खेल का कप्तान ,
शांत चित से धूप सेक रहा है
वाह रे खुदा क्या अनोखा खेल बुना है

जीवन

होने और करने में
थोड़ा सा अंतर है
जो समझले इस अंतर को
वो जीवन के झमेलों से मुक्त है

क्या मेरे बस में है
क्या मुझसे परे है
जो परे है वो बस परे है
उसे छीनाझपटी से पाना असंभव है
जिसके पल्ले इतनी सी बात पड़ गई
वो जीवन ऐसे जीता है
जैसे नदी में पत्ता बहता है

जो कुछ भी आनंद का स्रोत है
वो ऊपर से अवतरित होता है
जबतक होता है बस होता है
जब जाना होता है चला जाता है
कोई तारीख बताकर नहीं जाता है

पीड़ा का
स्रोत भी वही है जो आनंद का है
इंसान असमर्थ है
न वो असीम आनंद पैदा कर सकता है
न वो अनंत पीड़ा को ही जन्म दे पायगा

जो आनंद को कसने का प्रयास न करे
पीड़ा को देखकर भागता न हो
बस अपनी झोली फैलकर रख ले
जो मिल जाय उसे माथे से लगा ले

आनंद में नृत्य का रस पीले
पीड़ा में अश्रुओं का जाम ले ले
जो इस कला में पारंगत हो गया
उसके जीवन के सारे अँधेरे मिट गए