Thursday, March 31, 2011

खालीपन

ये क्या खालीपन है
जो कभी नहीं भरता
ये कैसा अधूरापन है
जो कभी पूरा नहीं होता

इतने सारे रिश्ते नाते है
सब आने जाने है
कितने बंधन बांधे हैं
सब टूट जाने हैं

अंधापन ही अच्छा था
खोखली बस्तुयों का पीछा करते रहो
रोशनी नंगा कर देती है
खोखलापन साफ़ नज़र आता है

अगर दिखाई देता है मुझे
कुछ नहीं मिलने वाला ख़ाक के सिवा
फिर कैसे कदम आगे बढ़ जाए मेरे

डर तो मुझे भी है फिसलने का
हो सकता है ज़माने जीत जाए
मैं हार जाऊ,
पर तसल्ली तो रहेगी
अपने दिल की राह पर चली

चाहे चालू इस राह,
चाहे जाऊँ उस राह
मुश्किलें तो बराबर ही आयेगी
एक राह पर लोगो की भीड़ है
दूसरी थोड़ी सुनसान है

न पति, न प्रेमी , खालीपन भर पायेगा
न दुनियादारी के झमेले, पूरापन ला पायेगे
फिर क्यों फ़िक्र रहे राह चुनने की
जहाँ दिल आया बस उठाकर झोला चल दिए

Tuesday, March 29, 2011

इश्क

छुपा ले अपने दमन में कहीं मुझे
ये इश्क मेरे बस की बात नहीं
खुद का दर्द तो सह लेते हैं किसी तरह
पर उन्हें दर्द में देखा जाता नहीं

न उनके साथ रह सकते हैं ,
न उनके बिना गुज़ारा होता है
ये इश्क की क्या मजबूरी है
जहाँ कोई साहिल नहीं मिलता है

कोई दावा होती अगर इश्क तेरी
तो मैं वैद बनकर खोज कर लेती
हर अश्क जो मेरे महबूब की आँखों से गिरता
अपनी हथेली में बटोर लेती

Friday, March 25, 2011

काश

जुबां कुछ न कहती
बात तुम तक पहुँच जाती
मैं तुम्हें स्पर्श करती
तुम मेरे कंमपन्न को जान जाते

मैं तुम्हें देखती
तुम मेरी आंखें पढ़ लेते
काश तुम बिन कहे,
सब कुछ समझ जाते

कभी तनहा होकर भी मैं तनहा नहीं होती
तुम्हारा साया मुझे घेरे रहता है

कभी जकड़ा होता है तुमने बाँहों में
पर मीलों का फ़ासला दर्मिया होता है
घुटन होती है मुझे उस जकड़न में,
जहाँ तुम्हारा शरीर होता है पर तुम नहीं
काश तुम मेरी बेचैनी,
बिस्तर कि सिलवटों में देख पाते

कभी थम-थम चलती हैं मेरी सांसें
कहती है बैठो न थोड़ी देर मेरे पास
कभी डर से सहम जाती हैं
कौन जाने कल की सुबहे कभी न आये

कभी तुम्हारी सांसों में लय मिलाकर चलती हैं
कहती है कभी जुदा तुमसे होंगी नहीं
काश मेरी सांसों के उतार-चढ़ाव,
तुम महसूस कर पाते

थक गई में बोलते सुनते,
अब बोलों को किनारे करो
आने दो मुझे अपने भीतर
तुम समा जाओ मेरे अन्दर

पिघलने दो दर्द को,बन जाने दो दरिया
मिट जाने दो मुझे,हो जाने दो पूरा
काश हम दोनों सारी सीमाएं लांगकर,
दो न रहकर बस एक ही रह जाते

Thursday, March 17, 2011

बस ऐसे ही .....

हम खुदा की नहीं
खुदा के बन्दों की इबादत करते हैं
हर गली-कूंचे से मुस्कुराकर गुजरते हैं
लोग मस्जिद मज़ार पर सर झुकाते होगे
हम हर किसीको को सलाम करते चलते हैं

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खुदा भी मेरा खुदाई भी मेरी
क्यों मुझे गरक होने का खौफ़ हो
गरक होकर भी मैं रहुगी उसीकी

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शुक्र है मिल गई निजात मुझे इश्क से
नहीं तो न जाने कितनी बार
दफ़न होना पड़ता मरना से पहले

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अब तो उम्र गुजरेगी तेरे इंतज़ार में सारी
पर तू ग़म न कर, ये मेरे सनम
ये गुन्हा नहीं तेरा,मौहब्बत है हमारी

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सुनते हैं इश्क छीन लेता है चैन सकून
देखतें हैं कितनी रातें जागकर हम गुजारेंएगे
खुद को इस आग में जलाकर
इंतिहा क्या है इसकी अजमाकर हम भी देखेगे!

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मेरे मेहरबान, खुदा के लिए
मुझसे कोई वादा न मांग
क्यों वादा करवाकर मुझसे
मेरी मुहब्बत पर शक करता है

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अगर मिल गया तू मुझे , तो खुदा की जरूरत न रहेगी
बेवफा निकल जाना सनम, यही तेरी मुहब्बत होगी

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खुदा रहमत है तेरी, बरना क्या औकात है मेरी !
मिट कर मिट्टी बन गई होती, सलामत हूँ दुआ है तेरी !
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बस तू ही तू है, और जहाँ में रखा है क्या !
तू मिले तो सकूं आये, बाकी सबसे मेरा वास्ता है क्या !
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मुझसे मत पूछों दोस्तों खुदा का पता, मैं तुम्हें समझा नहीं पाऊगी !
जब भी मैंने आईने देखा उसे देखा, जब भी किसी आँख में झाँका बस उसे ही देखा !
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मेरा न होना ही सुन्दर है, मेरे होने से सब बिगड़ जाता है !
काश मैं ऐसे जियू, की मेरा होना भी न होना सा ही रहे !
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सारे ज़ख्म भर गए रूह और जिस्म के,
तूने जो नज़र भर के देख लिया !
अब रहा नहीं कुछ से मांगने के लिए,
तेरी चाहत ने हर दुआ को मुकमल कर दिया !

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गम के साथ जीने की आदत हो गई है,
ख़ुशी से दिल सहम जाता है !
मुहब्बत में बेवफाई की आदत हो गई है,
तेरी बफाओं से डर लगता है !

मन

मन के खेल निराले
कभी खुद से जीते
कभी खुद से हारे
ले उलझाय मुझे
बुने जाल बेहिसाब

एक नहीं कई हैं मन मेरे
एक मन कहे दुनिया प्यारी
दूसरा कहे कैसी व्यथा पाली
तीसरा कहे त्याग दे सब प्यारी
किस मन से जीतू किस मन से हारू
किस मन की मानू किस मन को मना लूँ

रोज बदले रूप मन मेरा
जो कल था वो आज नहीं
जो आज है कल होगा
इसका भरोसा नहीं है
किस रूप को अपना कह दूँ
किस रूप को पराया कह दूँ

है मन मेरा !!
सोने का पिंजरा
मैं मैना सी उसमे फंसी
चाबी मेरे पास पड़ी
पर मैं कभी निकल न सकी

कभी निकल भी जाती एक पिंजरे से
तो दुसरे मैं खुद ही घुस जाती
आदत है मेरी पुरानी
मन की गुलामी करने की

गुरु बदला, संगत बदली
पर मन के खेल कम न हुए
मंदिर छोड़ा, मस्ज़िद छोड़ा
पर विचारों में परिवर्तन न आया

दीवारों का बदल गया है रंग
घर जैसा था वैसा ही रह गया

Tuesday, March 1, 2011

ज़ख्म

कुछ ज़ख्म ज़िन्दगी में कभी नहीं भरते
करो चाहे कितने भी जतन
तुम्हारा हाथ नहीं छोड़ते

देश छोड़ों, घर-वार छोडो
चाहे दुनिया से मुहं मोड़ों
वो तुम्हें तनहा नहीं छोड़ते

जिधर चलते हो, तुम्हारे साथ हो लेते हैं
सिसकियाँ भरो, दिवार से सर पटको
पर वो अपने मौसम में हरे हो ही जाते हैं