Thursday, February 3, 2011

खेल

आज ढलते सूरज की आड़ में से,
मैंने चुपके से एक खेल देखा
तो मेरी हँसी बेकाबू हो गई
लोग पागलखाने में ना डाल दे
ये सोचकर थोड़ी सहम गई

ज़र्रे ज़र्रे में खुदा है
उसीकी रहमत से संसार सारा है
न कुछ भला है न कुछ बुरा है
सब उसी का रचा है

वो मिटाता है वो ही बनाता है
वो पैदा करता है वो मारता है
जाने कितने हज़ारों सालों से
ये खेल वो खेल रहा है

हम इस खेल के खिलाड़ी हैं
पर हमें इसकी भनक ही नहीं है
वो मजे लूट रहा है इस खेल में
हम लुट रहें हैं बेवजह इस खेल में

कैसा खेल है ये,
खिलाडियों ने इसे महायुद्ध समझ रखा है
अपने हिसाब से टोलियाँ में बाँट रखा है
प्रेम, बैर का दस्तूर निभाया जा रहा है
कोई किसी का खून कर रहा है
कोई खुद को ही फांसी पे लटका रहा है
किसी को प्रेम की प्यास है
कोई हर चीज से निराश है

पर इस खेल का कप्तान ,
शांत चित से धूप सेक रहा है
वाह रे खुदा क्या अनोखा खेल बुना है

1 comment:

  1. someone has well said....zarre zarre me Usi ka noor hai...jhankh khudme wo na tujhse door hai..ishq hai Usse to sabse ishq kar...is ibaadat ka bus yahii dastoor hai.. :)

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