Sunday, October 16, 2011

मेरे यार मेरा खुदा...

मंदिर-मस्ज़िद जाना क्यों ?
क्या रखा मक्का-मदीने में ?

मेरे यार की बाहों में ज़न्नत मेरी,
मेरे यार की आँखों में मेरा खुदा!

मेरे यार की पलकों में करूं नमाज़,
मेरे यार की सांसें मेरा तीर्थधाम!

मंदिर-मस्ज़िद जाना क्यों ?
क्या रखा मक्का-मदीने में ?

गवाई थी उम्र मैंन, कागज़ के टुकड़ों में!
भटक रही थी रूह मेरी, यूहीं सड़कों के गड्डों में !

वैसे तो इसे कोई मुकाम नहीं मिलता,
तेरी मुहब्बत ही मुकाम बन गई इसका !

अब मंदिर - मस्ज़िद जाना क्यों ?
क्या रखा मक्का-मदीने में ?

मेरे यार के हवालें मेरी उम्र सारी!
करूं इबादत बस अपने यार की !

1 comment:

  1. ख़ूबसूरत प्रस्तुति के लिए बधाई .

    कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारें /

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