Friday, July 1, 2011

पर...

हाय रे ...व्यथा मेरी
आगे बढ़ रही हूँ
या फिसलकर नीचे गिर रही हूँ
ये भी जान नहीं पाती हूँ

पर ,
कुछ बदलता जा रहा है
कुछ हाथों से छूटता जा रहा है
घनघोर बादलों सा मेरा मन,
नदी जैसा शीतल होता जा रहा है

दुश्मनों की फ़िक्र नहीं,
दोस्तों से भी दूरी बनती जा रही है
हंसी तो पहले ही बेकाबू थी
अब आंसुओं से भी लगाब हो गया है
जाने अपने करीबियों को,
ये गहराई कैसे दिखा पाऊँगी !

पर,
जो भी साथ चला मेरे
न रहेगा उसका कोई अतीत
न आयेगा उसका कोई कल
शब्दों की झंझट छूट जायेगी
रहेगा शेष,
जो कहा न जा सके

नदी में कूद तो गई हूँ
न आये तैरना मुझे
कोई भी भंबर तबाह कर सकता है
पल में , मेरा अस्तित्व मिटा सकता है

पर ,
नदी को ही मेरी हिम्मत पर तरस आ गया है
वो उतना ही डूबने देती है
जितने में मेरी सांसे चलती रहे !

और तमाशा क्या खूब है
मैंने उसकी तली में भी जाकर साँस लेना सीख लिया

4 comments:

  1. this is not so organized but i liked it...it takes me away from this world...

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  2. :-) You are right its not orgnanized and top of it its incomplete. And beauty is I am incapable to organize it or make it complete because I might never have feelings through which I composed it:-)...
    The day my poetry will be complete and perfectly organized. That will be last poetry of my life :-)....

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  3. wow...what the thoughts..
    नदी को ही मेरी हिम्मत पर तरस आ गया है
    वो उतना ही डूबने देती है
    जितने में मेरी सांसे चलती रहे !
    और तमाशा क्या खूब है
    मैंने उसकी तली में भी जाकर साँस लेना सीख लिया

    excellent peace of poetry...really like it

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