Saturday, August 24, 2013

स्वीकार नहीं कर पाई

मैं कहना तो सीख गई,
जो भी तू करता है, अच्छे के लिए करता है !
पर स्वीकार नहीं कर पाई
पड़ी रहती है कहीं अंतर्मन में,
शक की एक छोटी-सी डली !

एक स्वस्थ काया दी,
ख़ूबसूरती निहारने के लिए दो नैन दिए
संगीत का मजा लूटने के लिए दो कान दिए
धिरकने के लिए दो पैर भी दिए

नहीं देता, तो क्या तेरा बिगाड़ लेती !
कहने को तो बहुत दिया,
फिर भी, मुझे हमेशा कम लगा !

एक माँ दी, प्यार से पालने के लिए !
एक पिता दिया , शिक्षा की देख -भाल के लिए !
एक छत मिली बारिश में,
घी रोटी मिली भूख में !

ना  होता साया किसीका,
तो कैसे नाजुक बचपन को संभालती !
कहने को तो बहुत दिया,
फिर भी, मुझे हमेशा कम लगा !

जब गिरी लड़खड़ाकर  मैं ,
तूने किसी बहाने से मुझे धाम लिया !
कभी दे दिया वो, जिसकी मुझे चाहत थी
कभी जुदा कर दिया उसे, जो आज़ीज़ था

ना करता जुदा किसीको मुझसे,
तो आज मैं अपने प्यार के साथ कैसे होती
कहने को तो बहुत दिया तूने,
फिर भी, मुझे हमेशा कम लगा !

मैं कहना तो सीख गई,
जो भी तू करता है, अच्छे के लिए करता है !
पर स्वीकार नहीं कर पाई !
पड़ी रहती है कहीं अंतर्मन में,
शक की एक छोटी-सी डली !

I am still waiting the day I will have total acceptance and trust in existence...

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