ये कैसी बैचेनी है
जो ना कुछ कहने देती है ना चुप्पी ही सादती है
कभी मन होता है,
तुम्हें छू कर देखूं
तुम्हारी हँसी को दिल से लगाकर देखूं
उन प्यारी सी आँखों में अपनी तस्वीर को झाँकूँ
पास आकर तुम्हें महसूस करूँ
बीच की सारी दूरियों को मिटाकर,
रात के सन्नाटे में तुम्हारा हाथ थामकर बैठूं
बिना कुछ कहे तुम्हें घंटों तक ताकूँ
तुम्हारी रुकी रुकी सांसों में,
अपनी सांसों की गर्मी दाल दूँ
पर मैं जानती हूँ,
तुम चले जाओगे कुछ देर में
कुछ कहना है तुमसे इससे पहले तुम जाओ ,
पता नहीं कैसे कहूँ
शायद मैं भी नहीं जानती वो क्या है
जो होटों पर है,
पर शब्दों में पिरो नहीं पाती
तुमसे कोई शिकायत नहीं है मुझे
तुम्हें पाने की भी तमन्ना नहीं है मुझे
फिर भी कुछ है जो मुझे तुमसे जोड़ देता है
तुम्हारी तरफ खीचता है
अलविदा कहने से डरता है
सब जानकार भी आँख मूंद लेती हूँ
कल क्या होगा उस सोच को,
किसी कोने में दबा देती हूँ
कुछ तो है हम दोनों के बीच
उस 'कुछ' का नाम तलाशती हूँ
--Fri, 08 Jun २००७
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